नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर का इतिहास एवम भगवान शिव के पशुपतिनाथ रूप की कहानी चलिए जानते है

भगवान शिव का  पशुपतिनाथ रूप




पशुपतिनाथ मंदिर कहाँ स्थित है?

भारत के पड़ोसी देश नेपाल की राजधानी काठमांडू से लगभग 3 किलोमीटर की दूरी पर बागमती नदी के किनारे भगवान शिव को समर्पित पशुपतिनाथ मंदिर ( Pashupatinath Temple Nepal ) अवस्थित है। देवपाटन गाँव में स्थित इस मंदिर की खासियत को देखते हुए ही इसे UNESCO ने विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया है। यह मंदिर नेपाल में भगवान शिव को समर्पित सबसे पवित्र मंदिरों में से एक गिना जाता है। 


इतिहास : पशुपतिनाथ मंदिर का निर्माण कब हुआ?




पशुपतिनाथ मंदिर ( Pashupatinath Mandir ) के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि यह मंदिर वेदों के लिखे जाने से पूर्व ही यहाँ स्थापित हो गया था। जिस कारण इस मंदिर के बारे में कोई प्रमाणित तथ्य तो स्पष्ट तौर पर नहीं मिलते हैं। परन्तु कई जगह हमें इसके इतिहास से जुड़ी किंवदंतियां कहती है कि इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश से संबंध रखने वाले पशुप्रेक्ष ने तीसरी इससे पूर्व में करवाया था। अभी इस मंदिर के ऐतिहासिक काल से जुड़े दस्तावेज 13वीं सदी के ही मिले हैं। 

कहते हैं कि यह मंदिर कितनी ही बार नष्ट हुआ और फिर से इसका पुनर्निर्माण करवाया गया। अभी के वर्तामन मंदिर का पुनर्निर्माण वर्ष 1697 में नरेश भूपतेन्द्र मल्ल ने करवाया था। इन्हीं नरेश भुप्तेन्द्र मल्ल ने यहाँ मंदिर में चार पुजारी (भट्ट) और एक मुख्य पुजारी (मूल-भट्ट) दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में से रखे जाने की परंपरा की शुरुआत की थी।   

पशुपतिनाथ मंदिर कितना प्राचीन है?




अभी वर्तमान में जो  temple of nepal पशुपतिनाथ है उसका निर्माण 15 वीं शताब्दी के राजा भूपतेन्द्र मल्ल ने करवाया था। इस मंदिर की प्राचीनता के संबंध में किदवंतियाँ कहती है कि इसकी स्थापना वेदों के लिखे जाने से भी पहले हुई थी। परन्तु इससे जुड़े कोई प्रमाण हमें नहीं मिलते हैं। 

पशुपतिनाथ का अर्थ क्या है?

पशु से तात्पर्य जीव-जंतु या प्राणी दोनों से है जबकि पति से तात्पर्य स्वामी या ईश्वर है। इस प्रकार पशुपतिनाथ का स्पष्ट अर्थ है समस्त जीवों के स्वामी।

महादेव को पशुपतिनाथ क्यों कहा जाता है?

देवो के देव कहे जाने वाले महादेव का दूसरा नाम पशुपतिनाथ भी है क्योंकि वे समस्त संसार के भगवान माने जाते हैं। पशुपतिनाथ कहे जाने के पीछे यह वजह कि जितना अधिक प्रेम भगवान संसार के प्राणियों से करते हैं उतना ही अधिक प्रेम वे जीव-जन्तुओ से भी करते हैं। उनके ह्रदय में जीव-जंतुओं और पशुओं के लिए यह अपार प्रेम देख ही उन्हें पशुपतिनाथ कहा जाता है।

पशुपतिनाथ मंदिर का महत्व ( Importance of Pashupatinath Temple )
हिन्दू धर्म में पशुपतिनाथ मंदिर ( Pashupati Mandir ) का बहुत अधिक महत्व है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति इस स्थान के दर्शन कर लेता है उसे कभी पशु योनि प्राप्त नहीं होती है। इसके पीछे भी एक शर्त है कि यहाँ आकर सर्वप्रथम शिवलिंग के दर्शन करें और उसके बाद ही यहाँ विराजमान नंदी के दर्शन करें।

सबसे पहले नंदी के दर्शन करने से व्यक्ति को पशु योनि मिलती है। वैसा भी कहा गया है कि मनुष्य को 84 लाख योनियों के बाद ही मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है। इस प्रकार व्यक्ति इस स्थान पर सच्चे मन से भगवान के दर्शन कर पशु योनि से मुक्ति का वरदान प्राप्त कर सकता है।

भगवान शिव का निराकार स्वयंभू नर्मदेश्वर शिवलिंग और नंदी ( Narmadeshwar Shivling and Crystal Nandi ) को घर में रखने से घर की नकरात्मकता दूरी होती है। नंदी भगवान शिव के द्वारपाल है अतः जिस भी स्थान पर उन्हें भगवान शिव के साथ स्थापित किया जाता है वहां वे बुरी शक्तियों को प्रवेश नहीं करने देते हैं और घर के वातावरण और सदस्यों की रक्षा करते हैं।


पशुपतिनाथ की उत्पत्ति कैसे हुई? ( Pashupatinath ki Utpatti kaise hui? )


पशुपतिनाथ की उत्पत्ति के पीछे दो पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। जिनमें से एक कहानी का संबंध पांडवों और केदारनाथ से है। दरअसल जब पांडव शिव जी को खोजते हुए उत्तराखंड पहुंचे थे तो उनसे छिपने के लिए भगवान शिव ने भैंसे का भेष धारण कर लिया था। केदारनाथ में ही पांडवों को शिव जी ने भैंसे के रूप में अपने दर्शन दिए थे। इसके बाद केदारनाथ में ही वे धरती में समा ही रहे थे कि भीम ने उनकी पूँछ पकड़ ली। कहते हैं कि जिस स्थान से भगवान शिव का मुख बाहर निकला था उसे ही आज वर्तमान में पशुपतिनाथ मंदिर ( Pashupatinath Mandir ) कहा जाता है।   

पशुपतिनाथ मंदिर का महत्व ( Importance of Pashupatinath Temple )


हिन्दू धर्म में पशुपतिनाथ मंदिर ( Pashupati Mandir ) का बहुत अधिक महत्व है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जो भी व्यक्ति इस स्थान के दर्शन कर लेता है उसे कभी पशु योनि प्राप्त नहीं होती है। इसके पीछे भी एक शर्त है कि यहाँ आकर सर्वप्रथम शिवलिंग के दर्शन करें और उसके बाद ही यहाँ विराजमान नंदी के दर्शन करें।

सबसे पहले नंदी के दर्शन करने से व्यक्ति को पशु योनि मिलती है। वैसा भी कहा गया है कि मनुष्य को 84 लाख योनियों के बाद ही मनुष्य का जन्म प्राप्त होता है। इस प्रकार व्यक्ति इस स्थान पर सच्चे मन से भगवान के दर्शन कर पशु योनि से मुक्ति का वरदान प्राप्त कर सकता है।

भगवान शिव का निराकार स्वयंभू नर्मदेश्वर शिवलिंग और नंदी ( Narmadeshwar Shivling and Crystal Nandi ) को घर में रखने से घर की नकरात्मकता दूरी होती है। नंदी भगवान शिव के द्वारपाल है अतः जिस भी स्थान पर उन्हें भगवान शिव के साथ स्थापित किया जाता है वहां वे बुरी शक्तियों को प्रवेश नहीं करने देते हैं और घर के वातावरण और सदस्यों की रक्षा करते हैं।

पशुपतिनाथ की उत्पत्ति कैसे हुई?

पशुपतिनाथ की उत्पत्ति
 के पीछे दो पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। जिनमें से एक कहानी का संबंध पांडवों और केदारनाथ से है। दरअसल जब पांडव शिव जी को खोजते हुए उत्तराखंड पहुंचे थे तो उनसे छिपने के लिए भगवान शिव ने भैंसे का भेष धारण कर लिया था। केदारनाथ में ही पांडवों को शिव जी ने भैंसे के रूप में अपने दर्शन दिए थे। इसके बाद केदारनाथ में ही वे धरती में समा ही रहे थे कि भीम ने उनकी पूँछ पकड़ ली। कहते हैं कि जिस स्थान से भगवान शिव का मुख बाहर निकला था उसे ही आज वर्तमान में पशुपतिनाथ मंदिर ( Pashupatinath Mandir ) कहा जाता है।    

दूसरी कथा के अनुसार भगवान शिव Nepal Pasupati में चिंकारे का रूप धारण करके निद्रा में चले गए थे। जब सभी देवता गण उन्हें खोजते हुए यहाँ पहुंचे तो उन्होंने भगवान शिव को वाराणसी लाने का खूब प्रयास किया। उस समय भगवान शिव ने नदी के दूसरे छोर पर छलांग लगा दी जिस कारण उनके सींग के टूटकर चार टुकड़े हो गए थे। इसके बाद ही उस स्थान पर भगवान चतुर्मुखी पशुपतिनाथ शिवलिंग ( Pashupatinath Shivling Nepal ) की रूप में यहाँ पर प्रकट हुए थे।  

Pasupati में चिंकारे का रूप धारण करके निद्रा में चले गए थे। जब सभी देवता गण उन्हें खोजते हुए यहाँ पहुंचे तो उन्होंने भगवान शिव को वाराणसी लाने का खूब प्रयास किया। उस समय भगवान शिव ने नदी के दूसरे छोर पर छलांग लगा दी जिस कारण उनके सींग के टूटकर चार टुकड़े हो गए थे। इसके बाद ही उस स्थान पर भगवान चतुर्मुखी पशुपतिनाथ शिवलिंग ( Pashupatinath Shivling Nepal ) की रूप में यहाँ पर प्रकट हुए थे। 




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